एक ठूंठ
आज फिर लौट के ये बसंत आ गया,
साथ मे अपने नए रंग ला गया,
एक बार फिर देखो धरती तैयार हो गयी,
एक और फसल आने की बहार हो गयी,
किसान फिर से तैयार है खुद और बैलों को लेकर,
बहुत सारा पसीना मेहनत के साथ,
बोने लगा है बीज सपनो में धार लेकर,
हल से उसने धरा को काबिल बना दिया,
बीजो से उसने फिर उसे सजा दिया,
दिन ढलते रहे रातें भी ढलती रही,
फसल धीरे धीरे जवां होते होते बढ़ने भी लगी,
सूरज के साथ चलते चलते पकने भी लगी,
किसान फिर तैयार था हाथ मे दराती,
आंखों में सपने लिए दिन में जागकर रातों को सोते हुए,
चल पड़ा खेत मे लहलहाती फसल को काटने,
तैयार थी फसल और किसान भी,
किसान के हाथ चलते रहे आंखे चमकती रही,
फिर भी मुझे ये अजीब सा एहसास क्या है,
साथ था जो अभी अब साथ नहीं है,
तैयार किया था जिसे वो मुड़कर देखा भी नहीं,
न फसल ने न मेरे मालिक ने मुझे,
खड़ा हूँ आज भी वहीं धरा से चिपका हुआ,
देखता हूँ “निष्प्राण” सा,
दिन को चलते हुए रात को ढलते हुए,
ये रीत अनोखी रही मेहनत तो बहुत की,
लेकिन छोड़ दिया अकेला ,
जिसने दिया था उन्हें आसमान छूने का हौसला।
~देवेन्द्र “निष्प्राण” गमठियाल
बहुत ही बढ़िया कविता, ठूंठ का मानवीकरण बहुत ही खूबसूरत ढंग से किया है
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बहुत बहुत धन्यवाद संवर्त जी 🙏
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Bahot sundar kavita dev bhai.. aisi shuruat rahi toh bahot maza aayega
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शुक्रिया डॉक्टर साहब 🙏
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