इक आग

एक अकेला आखिरी,
वो धुआँ था, बाहरी
कोई आग है लग चुकी
लपटें, जो इतनी उठ रही।

इक जर्रा अंधेरा, मिटाकर
पीछे अंधियारा छोड़ गया
एक चिंगारी जलानी थी बाकी,
आग बनाकर छोड़ गया।

फिर तूफां और आंधियां
और बारिशें भी नाकाम रही
जो जलना था सब राख हुआ
हर कोशिश मेरी भी नाकाम रही।

मरहम भी कोई न काम आया फिर जब
बस आस दिखाकर चला गया
देने का साथ वो उम्रभर का
वादा तोड़कर, युहीं तन्हा छोड़कर,
इस हाल में तड़पाकर चला गया।

भावनाओं के भंवर से जब निकला मैं
तब देर बहुत थी हो चुकी
जिस “आग” को मैंने समझा अपना,
वो खाक बनाकर चली गयी।

By- manoj ji

Published by Devendra Gamthiyal

वर्णों से बनकर उपन्यास की ओर

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  1. Piyush's avatar

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